उच्च शिक्षा में अनियमित (स्वाध्याई ) छात्रों की बढती संख्या नें ,नीति निर्माताओं की नींद उड़ा डाली थी और वे उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की अभिवृद्धि के लिए चिंतन ,नीति निर्धारण और उसके क्रियान्वयन हेतु प्रयत्नशील हो गए थे ! उनके चिंतन की पृष्ठभूमि में निम्नांकित बिन्दुओं का महत्वपूर्ण स्थान था !
१ : उच्च शिक्षा के नियमित संस्थान सर्व सुलभ नहीं हैं और भारी भरकम लागत /खर्चों के मद्देनज़र इनका विस्तार सहज और सुविधाजनक नहीं है !
२: उच्च शिक्षा में 'मांग' की अधिकता के कारण संसाधनों ( आपूर्ति ) का विस्तार अनिवार्यता है ! जोकि पूंजी के अकूत और अबाधित निवेश से ही सम्भव हो सकता है ? हालाँकि हमारे देश की परिस्थितियां इसके अनुकूल नहीं है अतः वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर शुरू किए गए प्रयोग , अनियमित (स्वाध्याई ) छात्र होकर डिग्री पाने की सुविधा ने गुणवत्ता का संकट खड़ा कर दिया है !
३: उच्च शिक्षा में गुणात्मक ह्रास देश हित में कदापि भी नही है ! इसलिए अनियमित छात्रों की भीड़ में ही प्रयोग करना पड़ेंगे !
४ : इसके अतिरिक्त अध्ययन आकांक्षियों का एक बड़ा वर्ग उम्र की सीमा के ऊंचे छोर पर आकर भी ,सामाजिक /पारिवारिक /आर्थिक अथवा नियमों के बंधन या अन्य कारणों से उच्च शिक्षा से वंचित रह गया है उसे भी उच्च शिक्षा की सहूलियत उपलब्द्ध कराने की जरुरत है !
इसीलिए नीति निर्माताओं के सामने लागत में वृद्धि (अधिक पूंजी निवेश ) किए बिना ,वंचित वर्ग को गुणवत्ता सहित उच्च शिक्षा के विकल्प उपलब्ध कराने की चुनौती मुंह बाये खड़ी थी !
चूँकि नियमित संस्थानों में एक निश्चित समय में ही संसाधनों यथा स्टाफ ,भवन उपकरण आदि का उपयोग किया जा रहा था और शेष समय में पूंजी के अल्प निवेश (प्रेरणा स्वरुप ) के साथ इन संसाधनों का पुनः उपयोग सम्भव था अतः भावी छात्रों में स्वाध्याय के साथ शिक्षकों ( विशेषज्ञों )के सीमित संपर्क और नियमो /बंधनों में शिथिलता के साथ, दूरस्थ शिक्षा यानि की मुक्त शिक्षा की परिकल्पना की गई थी !
इसका एक अर्थ यह भी है कि छात्रों को शिक्षा की नियमित प्रणाली में जोड़े बिना ,पहले से उपलब्ध संसाधनों के पुनःप्रयोग और उन्नत तकनीक के समावेश द्वारा "मांग आपूर्ति " की सहज और समानांतर कम खर्चीली व्यवस्था का संचालन !
स्पष्ट है कि दूरस्थ शिक्षा परिषद् की स्थापना और केन्द्र तथा राज्य मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना, नीति निर्माताओं की दूरगामी सोच और रणनीति का हिस्सा है !
हमारे छत्तीसगढ़ में मुक्त शिक्षा के इन्ही बुनियादी उसूलों के साथ पं सुन्दरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय बिलासपुर की स्थापना राज्य शासन ने की है ! किंतु क्या वास्तव में विश्वविद्यालय मुक्त शिक्षा का सच्चा प्रतिनिधि बन पाया है ? क्या वास्तव में कम लागत में "उच्च शिक्षा आपके द्वार" की परिकल्पना पर विश्वविद्यालय खरा उतरा है ?
यहाँ छोटे बड़े कर्मचारियों / अधिकारियों की विराट सेना कार्यरत है किंतु छात्र सुविधाएँ बड़ा सा शून्य !
आप यह जान कर दुखी होंगे कि यहाँ पर छात्र प्रवेश तो लेते हैं पर वर्षों तक परीक्षा को तरस जाते हैं और अगर परीक्षा हो भी जाए तो परिणाम को !
यहाँ पाठ्यक्रमों को लेकर भ्रम , सुरसा के मुंह की तरह फैला हुआ है , और मुक्त शिक्षा के विशेषज्ञों की यहाँ पर कोई पूछ परख नही है ! इसलिए छात्रों पर नियमित विश्वविद्यालय की तरह नियम थोपने वाले नौसीखिये कर्मचारी/ अधिकारी मनमानी करते हैं ! जिसके कारण छात्र दिशाहीन और मतिभ्रम का शिकार हो चले हैं !
क्या पं सुंदर लाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय रसूखदार और अनुभवहीन कर्मचारियों /अधिकारियों (और शायद अपात्र भी ?) का अभ्यारण्य बन गया है ?